15 फ़रवरी 2010

सत्ता की लड़ाई में महाराष्ट्र में क्या?

देश में ढेर सारी समस्याएं हैं,लेकिन कौन है कि इन समस्याओं पर ध्यान दे रहा है,लोगों के सामने 
महंगाई मुंह बाये खड़ी है,,लेकिन लोगों को महंगाई की चिंता कम,माई नेम इज खान रिलीज होगा कि 
नहीं इसकी ज्यादा चिंता सता रही है,,महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय के साथ यानि कि बिहार और यूपी के 
लोगों के साथ ऑस्ट्रेलिया में जिस तरह से भारतीयों के साथ सलूक किया जाता रहा है,उससे भी 
ज्यादा खराब सलूक किया जाता रहा है,,लेकिन सवाल ये है कि ये चीजें हाल-फिलहाल के दिनों में 
सामने नहीं आयीं हैं,,आपको वो वाक्या याद होगा जब राज ठाकरे यानि कि दूसरे शब्दों में कहे तो 
मुंबई का डॉन ने अपनी ज़हरीली बयानों से न जाने कितने लोगों को घायल किया था,,बात चाहे जया 
बच्च्न की हो,,या फिर अभिताभ बच्चन की,वो सारे वाक्ये अब भी उसी तरह याद हैं जैसे कि हाल 
कि दिनों में शिवसेना या फिर बाल ठाकरे कर रहे हैं,,लेकिन सरकार की भूमिका बदल गयी 
है,,परिस्थितियां भी तो बदली हैं,,महाराष्ट्र चुनावों के पहले ठाकरे फैमली के दिये गए बयानों पर 
सरकार गंभीर नहीं थी,,लेकिन हकीकत है
आज भी नहीं है,,हां ये भले ही हुआ है बिहार के चुनावी लड़ाई की तैयारी के सिलसिले में बिहार 
यात्रा पर राहुल ने बिहार और यूपी के लोगों के हितों की बात की,,और मुंबई हमलों के संबंध में
वोटों की खातिर कुछ बयान जारी किये..लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये सब चीजें सामान्य 
है,नहीं ऐसा नहीं है,,वैसे देखा जाए तो वर्ष २०१० चुनावों के लिहाज से और सालों की तुलना में शांत 
रहने वाला है,,लेकिन बिहार में चुनाव होने हैं,,और मुझे कहीं-न-कहीं महाराष्ट्र की लड़ाई में बिहार का 
चुनाव दिख रहा है,महाराष्ट्र में शिवसेना-शाहरुख विवाद ने राजनीतिक रंग में बदल गया है,,इससे 
कांग्रेस को उत्तर भारत में खिसकी जमीन को वापस पाने का मौका दिख रहा है,,कुल मिलाकर देखा 
जाए तो इस पुरी लड़ाई में शिवसेना अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ता दिख रहा है,,तो कांग्रेस के पास 
अपने वोट बैंक को मजबूत करने का मौका मिल गया है,,इसे दूसरे तरीके से कहा जाए तो बिहार और 
उत्तरप्रदेश की १२० सीटों की जंग महाराष्ट्र में शुरु हो गयी है,,एक तरफ तेलंगान मसले पर कांग्रेस 
अपने आप को पीछे पा रही है,,और अपने कीले को पड़े दरार को देखकर भविष्य के लिए नये कीले 
की तैयारी में जुट गयी है,,२०१४ को लोकसभा चुनाव ,,और राहुल का पीएम बनना ,,ये सारी बातें 
कहीं-न-कहीं कांग्रेस को उत्तर भारतीयों के बारे में सोचने को मजबूर कर रही है,,इस दूसरे तरीके से 
देखें तो विजन २०१०,विजन २०११ यानि कि बिहार और यूपी के फतह करने की तैयारी जोर-शोर से 
चल रही है,,ये चुनाव भविष्य के के रुझान को पारिभाषित भी करेंगे,,इस तरह महाराष्ट्र की लड़ाई पर 
केंद्र की भटकें नजरे हमारे सामने स्पष्ट रुप से दिख रही है,,विश्व व्यापार संगठन वार्ता,जलवायु 
परिवर्तन पर वार्ता,भारत-पाक वार्ता ये मुद्दे हमारे सामने चुनौती के रुप में खड़ें है,पिछले कई महीनों 
से तेलंगाना मुद्दा चिंता का विषय है,,लेकिन शायद सरकार इन मुद्दों को लेकर उतनी गंभीर नहीं 
है,,या फिर सरकार के लिए ये समस्याएं फिलहाल उतनी बड़ी नहीं है,जितनी कि २०१४ का लोकसभा 
चुनाव ।
हम वोट बैंक की राजनीति से पृथक नहीं कर सकते हैं,,इसीलिए वोट 
बैंक की समग्र रूप से चर्चा के बजाय वोट बैंक को अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक में वर्गीकृत करते 
हैं,,लेकिन देश की सच्चाई यही है कि देश सकल घरेलू सकल उत्पाद में अंच्छा प्रदर्शन कर रहा 
है,,लेकिन क्या कोई ये बताएगा कि संपन्न और वंचितों के बीच दूरी घट रही है,या फिर 
ये और गहरी होती जा रही है,,सरकार के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग ३७ करोड़ लोग 
गरीब हैं,,बाकी अमीर,,लेकिन आप कुछ समझें,,इससे पहले आपको बता दें कि भारत में जिसकी 
आय २० रूपये से कम है,,वही केवल गरीब है,,यानि कि २१रूपये से लेकर २५ लाख दैनिक कमाने 
वाले एकसमान हैं,,तो फिर गरीबी के ऐसे आंकड़े का क्या मतलब जो २१रूपये कमाने वालों को गरीब 
बताये ही नहीं,,लेकिन चलिए हम उसी ३७ करोड़ की बात करते हैं,,कि कितनी सरकारी सुविधाएं 
इनको मयस्सर होती है,,सस्ते राशन और नरेगा जैसी कल्याणकारी योजनाएं से थोड़ी देर के लिए गरीबी 
से लड़ा जा सकता है,,लेकिन ईमानदारी से किएं जाए तों..लेकिन गरीबी मिटती फिर भी नहीं 
है,,उससे जड़ पर प्रहार होना तो दूर की बात है,,सरकारी प्रयास तो उसकी जड़ को छूते ही 
नहीं,,हकीकत ये है हमारी सरकारों ने गरीबी जैसे चीजों से लड़ने की बात कभी सोची ही 
नहीं,,सरकार इन मुद्दों और वोट बैंक की राजनीति से इतर कुछ कर पा रही है,,तो इसका जवाब बेहद 
आसानी से मिल जा जाता है,कतई ऐसा नहीं है,,आम आदमी के हितों की र&ा न तो केंद्र सरकारें 
करती है,,और न ही राज्य सरकारें,,क्यों नहीं कर पाती हैं,,क्योंकि सरकार के पास ढेर सारे काम 
हैं,,आगे की सरकार बनाने की तैयारियां करनी है,,किसी को पीएम की वेंटिग लिस्ट को कंफर्म करना 
है,,इस तरह से देखा जाए तो यह साल चुनावी वर्ष नहीं होते हुए भी लोगों के लिए कठिन साबित हो 
सकता है,,लोगों में हम आम आदमी के साथ देश के सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों की भी बात कर 
रहे हैं,,वैसे तो ये लोग आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते हैं लेकिन फिर भी हम कर रहे हैं,,एक 
आदमी यानि कि वो ३७ करोड़ लोग जिनके सामने जान बचाने की चुनौती होगी ,,तो दूसरे आम 
आदमी यानि सत्ता के शीर्षस्थ लोग जिनके सामने सत्ता में बैठने की चुनौती होगी,,यानि आने वाले 
दिन आम लोगों के कठिन चुनौति वाले होगें

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