11 जुलाई 2010

नियति

सच कहता हूं
तूम्हारी याद आती है
काश !आज तुम होती तो
तेरी पल्लूओं की छांव में सिमट जाता
और उस धूप को जलने को विवश कर देता
पर जैसे रब ने मानो कुछ और ही लिख दिया था
बहुत स्पष्ट अक्षरों मे जो मिट न सके ,
हर बार जब मिटाने को उद्धत हुआ-लगा मिट सा गया है
पर नहीं,वह भ्रम था।
वह तो वहीं जस-का-तस था
मृग मरीचिका का आभास बनकर और मेरी टूटन कुछ और बढ़ गई थी
मैं टूटता रहा पर तुमसे जु़ड़ने का ख्वाब रह-रहकर उभर जाता था
जिस सु्बह को हारकर हार गया था मैं उस शाम तक संवर आता था।

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