21 जुलाई 2010

सोशल साइटें कितनी उपयोगी ?



  •  कुछ अर्से पहले ही तो इसका आगमन हुआ था और आज ये सबकी जरूरत बन गया है,ऐसी जरूरत कि मानो यह कोई सजीव मूर्त और सप्रण वस्तु हो।जी हां हम किसी जीवित प्राणी कि नहीं वरन् सोशल नेटवर्किंग साइटों की बात कर रहे हैं।सोशल नेटवर्किंग साइटें साइबर स्पेस की तरह संवाद साइटें हैं,पर ये अपने स्वभाव में ग्लोबल हैं।जो लोग आपस में नहीं मिल पाते ,जो लोग अपने स्थानों से उजड़े दूर पड़े हैं,वे अपने-अपने दोस्त ढूंढकर अपने समुदाय बनाकर संवादों में रहने लगते हैं।यहां हाड़-मांस का समाज नहीं होता है।आमने-सामने वाला साक्षात्कार नहीं होता है।बल्कि उसका आभासी रूप होता है।जहां अपनी आईडी से वे एक नए सामाजिक ढांचे का निर्माण करते हैं।यही कम्यूनिटीज कहलाता है।जो कि इलेक्ट्रॉनिक तकनीक के माध्यम से पूरा होता है।यह इलेक्ट्रानिक तकनीक यानी कंप्यूटर इंटरनेट का बनाया सामाजिक होता है।इसकी अपनी सत्ता और महत्ता है।जिसे हम साइबर नागरिक कह सकते हैं।यह एक नया जनमत है।वही आदमी जो घर-दफ्तर  में रहकर एक जमीनी पहचान रखता है ,अपनी सोशल साइट पर जरा अलग पहचान रखता है ।समाज में नियमों से लिमिट में रहता है।लेकिन यहां आजाद हो जाता है।यहां मल्टीपल पहचानें होती हैं।सोशल नेटवर्किंग साइटें छिन्नमूल लोगों की टुकड़ टुकड़ा पहचानों की जगहें होती है।यहां व्यक्ति वह नहीं होता है,जो एक निश्चित घर में,एक दुकान में एक निश्चित पते पर होता है।जो राशनकार्ड या पासपोर्ट से पहचाना जाता है।यहां तरह-तरह के पेशेवर ,सामाजिक रूप से जागरूक,यंगिस्तान,स्कूल जाने वाले,एक सा काम करने वाले ,एक जगह रहने वाले,एक सा काम करने वाले ,एक रूचियों वाले ,यहां तक कि एक सा उधम मचाने वाले अपनी-अपनी कम्युनिटीज बनाते रहते हैं.यहां वहीं आदमी साइट पर आकर खुद बदल सा जाता है।यह एक प्रकार की सजग विभक्ति है।यहां छद्य पहचान वाले भी होते हैं।लड़के-लड़की बन बाते करते रहते हैं,लड़की के प्रति लार टपकाउ लोग उन्हें लड़की समझकर बतियाते  रहते हैं।यहां सजग जिम्मेदार जगत भी होता है।ये समाज के समांतर या बरक्स समाज बनाती है,ये भी सामाजिक होती है।लेकिन उस रूप में नहीं जिसे अब तक जमीनी समाज को जानते हैं। हालिया दिनों में इसकी लोकप्रियता में काफी इजाफा हुआ है,ओबामा ने अपने चुनाव अभियान में अपने विचार बताने के लिए फेसबुक का जमकर उपयोग किया।सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक और टि्वटर की वजह से ब्रिटेन में हाल में संपन्‍न आम चुनाव के दौरान प्रचार अभियान और राजनीतिक रिपोर्टिंग में सकारात्मक बदलाव आया है। ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नए शोध से यह बात सामने आई है। यह अध्ययन भारत के लिए भी काफी मायने रखता है जहां राजनेता अपनी बात रखने के लिए बड़ी तेजी से टि्वटर का इस्तेमाल कर रहे हैं और पत्रकार अपनी राजनीतिक रिपोर्टिंग के लिये इसका इस्‍तेमाल कर रहे हैं।वेबसाइटों की वजह से गत छह मई को ब्रिटेन में हुए आम चुनाव में 18 से 24 वर्ष की आयु वाले मतदाताओं ने अप्रत्याशित ढंग से हिस्सा लिया। टि्वटर ने राजनीति और मीडिया जगत में संचार के एक बेहद अहम औजार के रूप में अपनी पहचान बनाई है।
    अपने यहां शहरी मध्यम वर्ग सोशल नेटवर्किंग साइटों का सबसे ज्यादा उपयोग करता है।हमारे यहां चैट-फेसबूक में जिंदगानी ,ऑफिसों की नई कहानी बन गई है।ऐचोसैम के आंकड़े बताते हैं कि दफ्तर में समय बरबाद करने का सबसे लोकप्रिय तरीका सोशल नेटवर्किंग  है।कर्मचारी हर दिन दफ्तर में सोशल नेटवर्किंग साइटों पर कम-से-कम एक घंटा बरबाद करते हैं ।हर 10 में 4कर्मचारी ऑफिस में ऑर्कुट ,फेसबुक प्रोफाइल अपडेट करता है।इसके परिणास्वरूप कंपनियों को उत्पादकता में नुकसान उठाना पड़ रहा है।बहरलाल फेसबुक,आरकुट या लिंक्डइन जैसी सोशल नेटवर्किंग साइट पर संवाद करने का मतलब सिर्फ चकित करना या अपने हाइटेक स्वांग से रूतबे में लेने के लिए है तो ऐसा प्रयत्न दयनीय ही कहा जा सकता है।साइटों को साइबर संचार के एक रूप की तरह लोगों को समझना चाहिए।
      









                 

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