11 जुलाई 2010

नियति

सच कहता हूं
तूम्हारी याद आती है
काश !आज तुम होती तो
तेरी पल्लूओं की छांव में सिमट जाता
और उस धूप को जलने को विवश कर देता
पर जैसे रब ने मानो कुछ और ही लिख दिया था
बहुत स्पष्ट अक्षरों मे जो मिट न सके ,
हर बार जब मिटाने को उद्धत हुआ-लगा मिट सा गया है
पर नहीं,वह भ्रम था।
वह तो वहीं जस-का-तस था
मृग मरीचिका का आभास बनकर और मेरी टूटन कुछ और बढ़ गई थी
मैं टूटता रहा पर तुमसे जु़ड़ने का ख्वाब रह-रहकर उभर जाता था
जिस सु्बह को हारकर हार गया था मैं उस शाम तक संवर आता था।

06 जुलाई 2010

धौनी की शादी और टीवी मीडिया

रूद्न प्रताप सिंह को छोड़कर,आपको,हमको और लगभग हरेक भारतीय को धौनी की शादी की खबर एकाएक पता चली,शादी से एक दिन पहले मंगनी और ब्याह।भारतीय मीडिया को शादी की खबर को जल्द और सबसे सही पहुंचाने की चुनौती थी,लेकिन धौनी की शादी पर भारतीय मीडिया का कवरेज कितना सही था ये बताना काफी मुश्किल भरा काम है वो भी तब जबकि भारतीय समाज पर बाजारवाद हावी है ,आज के इस बाजारवाद के युग में इसका आकलन करना काफी मुश्किल हो गया है,अपने पेशे(पत्रकारिता) में तो खासकर और भी मुश्किल हो गया है,आजतक और स्टार न्यूज,आईबीएन 7,इंडिया टीवी जैसे चैनलों की मौजदूगी में चैनलों की अहमियत आम लोगों के बीच काफी कम हुई है।आमतौर पर समाचार की आम परिभाषा है-कि कोई सूचना जो सापेक्ष जनहित के तराजू पर खरी उतरे और जो संदर्भिता एवं तारतम्यता की चाहरदीवारी के भीतर रहते हुए जनता तक पहुंचे। लेकिन यहां यह भी जान लेना जरूरी है कि जनहित अनिवार्य रूप से वह नहीं है जिसमें जनता की रुचि हो। जनता की रुचि कई निम्न वृत्तियों में होती है, लेकिन न्यूज मीडिया पोर्नोग्राफी को खबर नहीं बना सकता।कई बार मनोरंजन की आवश्यकता दर्शकों को होती है,लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हम दिन भर धौनी की शादी की खबरों को दिखाते रहें,वो भी तब जब कि केवल अफवाहों पर काम चलाना है,(जैसै-कोई चैनल कह रहा है धौनी ने चॉकलेटी शुट पहना है,तो कोई क्रीम बता रहा है)चैनलो की इस तरह की हरकत को क्या कहा  जाए ,ये मेरी समझ से बाहर है,आपने एक तरह से इसे बाजार की मांग बताया है,तो क्या सर आप ये बता सकते हैं कि कितने दिनों बाद हमारे इन चैनलों से हमारी आपकी समस्याओं पर केंद्रित समाचारों का प्रसारण बंद हो जाएगा।धौनी की शादी की खबर को बिना कंटेंट के ग्राफिक्स और संगीत के माध्यम से दिखाना किस तरह से बाजारी की माग को पूरा करता है,लेकिन इतना तो जरूर है कि इस तरह की रिपोर्टिंग और प्रसारण से हमारी प्रतिबद्धता पर शक होता है और हमारी जेहनियत पर प्रश्नचिह्न लगता है।

15 फ़रवरी 2010

सत्ता की लड़ाई में महाराष्ट्र में क्या?

देश में ढेर सारी समस्याएं हैं,लेकिन कौन है कि इन समस्याओं पर ध्यान दे रहा है,लोगों के सामने 
महंगाई मुंह बाये खड़ी है,,लेकिन लोगों को महंगाई की चिंता कम,माई नेम इज खान रिलीज होगा कि 
नहीं इसकी ज्यादा चिंता सता रही है,,महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय के साथ यानि कि बिहार और यूपी के 
लोगों के साथ ऑस्ट्रेलिया में जिस तरह से भारतीयों के साथ सलूक किया जाता रहा है,उससे भी 
ज्यादा खराब सलूक किया जाता रहा है,,लेकिन सवाल ये है कि ये चीजें हाल-फिलहाल के दिनों में 
सामने नहीं आयीं हैं,,आपको वो वाक्या याद होगा जब राज ठाकरे यानि कि दूसरे शब्दों में कहे तो 
मुंबई का डॉन ने अपनी ज़हरीली बयानों से न जाने कितने लोगों को घायल किया था,,बात चाहे जया 
बच्च्न की हो,,या फिर अभिताभ बच्चन की,वो सारे वाक्ये अब भी उसी तरह याद हैं जैसे कि हाल 
कि दिनों में शिवसेना या फिर बाल ठाकरे कर रहे हैं,,लेकिन सरकार की भूमिका बदल गयी 
है,,परिस्थितियां भी तो बदली हैं,,महाराष्ट्र चुनावों के पहले ठाकरे फैमली के दिये गए बयानों पर 
सरकार गंभीर नहीं थी,,लेकिन हकीकत है
आज भी नहीं है,,हां ये भले ही हुआ है बिहार के चुनावी लड़ाई की तैयारी के सिलसिले में बिहार 
यात्रा पर राहुल ने बिहार और यूपी के लोगों के हितों की बात की,,और मुंबई हमलों के संबंध में
वोटों की खातिर कुछ बयान जारी किये..लेकिन सवाल ये उठता है कि क्या ये सब चीजें सामान्य 
है,नहीं ऐसा नहीं है,,वैसे देखा जाए तो वर्ष २०१० चुनावों के लिहाज से और सालों की तुलना में शांत 
रहने वाला है,,लेकिन बिहार में चुनाव होने हैं,,और मुझे कहीं-न-कहीं महाराष्ट्र की लड़ाई में बिहार का 
चुनाव दिख रहा है,महाराष्ट्र में शिवसेना-शाहरुख विवाद ने राजनीतिक रंग में बदल गया है,,इससे 
कांग्रेस को उत्तर भारत में खिसकी जमीन को वापस पाने का मौका दिख रहा है,,कुल मिलाकर देखा 
जाए तो इस पुरी लड़ाई में शिवसेना अपनी अस्तित्व की लड़ाई लड़ता दिख रहा है,,तो कांग्रेस के पास 
अपने वोट बैंक को मजबूत करने का मौका मिल गया है,,इसे दूसरे तरीके से कहा जाए तो बिहार और 
उत्तरप्रदेश की १२० सीटों की जंग महाराष्ट्र में शुरु हो गयी है,,एक तरफ तेलंगान मसले पर कांग्रेस 
अपने आप को पीछे पा रही है,,और अपने कीले को पड़े दरार को देखकर भविष्य के लिए नये कीले 
की तैयारी में जुट गयी है,,२०१४ को लोकसभा चुनाव ,,और राहुल का पीएम बनना ,,ये सारी बातें 
कहीं-न-कहीं कांग्रेस को उत्तर भारतीयों के बारे में सोचने को मजबूर कर रही है,,इस दूसरे तरीके से 
देखें तो विजन २०१०,विजन २०११ यानि कि बिहार और यूपी के फतह करने की तैयारी जोर-शोर से 
चल रही है,,ये चुनाव भविष्य के के रुझान को पारिभाषित भी करेंगे,,इस तरह महाराष्ट्र की लड़ाई पर 
केंद्र की भटकें नजरे हमारे सामने स्पष्ट रुप से दिख रही है,,विश्व व्यापार संगठन वार्ता,जलवायु 
परिवर्तन पर वार्ता,भारत-पाक वार्ता ये मुद्दे हमारे सामने चुनौती के रुप में खड़ें है,पिछले कई महीनों 
से तेलंगाना मुद्दा चिंता का विषय है,,लेकिन शायद सरकार इन मुद्दों को लेकर उतनी गंभीर नहीं 
है,,या फिर सरकार के लिए ये समस्याएं फिलहाल उतनी बड़ी नहीं है,जितनी कि २०१४ का लोकसभा 
चुनाव ।
हम वोट बैंक की राजनीति से पृथक नहीं कर सकते हैं,,इसीलिए वोट 
बैंक की समग्र रूप से चर्चा के बजाय वोट बैंक को अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक में वर्गीकृत करते 
हैं,,लेकिन देश की सच्चाई यही है कि देश सकल घरेलू सकल उत्पाद में अंच्छा प्रदर्शन कर रहा 
है,,लेकिन क्या कोई ये बताएगा कि संपन्न और वंचितों के बीच दूरी घट रही है,या फिर 
ये और गहरी होती जा रही है,,सरकार के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग ३७ करोड़ लोग 
गरीब हैं,,बाकी अमीर,,लेकिन आप कुछ समझें,,इससे पहले आपको बता दें कि भारत में जिसकी 
आय २० रूपये से कम है,,वही केवल गरीब है,,यानि कि २१रूपये से लेकर २५ लाख दैनिक कमाने 
वाले एकसमान हैं,,तो फिर गरीबी के ऐसे आंकड़े का क्या मतलब जो २१रूपये कमाने वालों को गरीब 
बताये ही नहीं,,लेकिन चलिए हम उसी ३७ करोड़ की बात करते हैं,,कि कितनी सरकारी सुविधाएं 
इनको मयस्सर होती है,,सस्ते राशन और नरेगा जैसी कल्याणकारी योजनाएं से थोड़ी देर के लिए गरीबी 
से लड़ा जा सकता है,,लेकिन ईमानदारी से किएं जाए तों..लेकिन गरीबी मिटती फिर भी नहीं 
है,,उससे जड़ पर प्रहार होना तो दूर की बात है,,सरकारी प्रयास तो उसकी जड़ को छूते ही 
नहीं,,हकीकत ये है हमारी सरकारों ने गरीबी जैसे चीजों से लड़ने की बात कभी सोची ही 
नहीं,,सरकार इन मुद्दों और वोट बैंक की राजनीति से इतर कुछ कर पा रही है,,तो इसका जवाब बेहद 
आसानी से मिल जा जाता है,कतई ऐसा नहीं है,,आम आदमी के हितों की र&ा न तो केंद्र सरकारें 
करती है,,और न ही राज्य सरकारें,,क्यों नहीं कर पाती हैं,,क्योंकि सरकार के पास ढेर सारे काम 
हैं,,आगे की सरकार बनाने की तैयारियां करनी है,,किसी को पीएम की वेंटिग लिस्ट को कंफर्म करना 
है,,इस तरह से देखा जाए तो यह साल चुनावी वर्ष नहीं होते हुए भी लोगों के लिए कठिन साबित हो 
सकता है,,लोगों में हम आम आदमी के साथ देश के सत्ता के शीर्ष पर बैठे हुए लोगों की भी बात कर 
रहे हैं,,वैसे तो ये लोग आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते हैं लेकिन फिर भी हम कर रहे हैं,,एक 
आदमी यानि कि वो ३७ करोड़ लोग जिनके सामने जान बचाने की चुनौती होगी ,,तो दूसरे आम 
आदमी यानि सत्ता के शीर्षस्थ लोग जिनके सामने सत्ता में बैठने की चुनौती होगी,,यानि आने वाले 
दिन आम लोगों के कठिन चुनौति वाले होगें

11 फ़रवरी 2010

क्या समाजवाद का चेहरा बच गया ?

ठाकुर अमर सिंह और समाजवादी पार्टी ,,एक व्यक्ति का नाम और दूसरा पार्टी का नाम,व्यक्ति जो दूनिया के हर उस चकाचौंध को जानता है,,जो मुमकिन हो,बात चाहे दुनिया के सबसे ऊंचे घर बुर्जदुबई में रहने की हो,,या फिर अनिल अंबानी से दोस्ती की या फिर वॉलीवुड के बादशाह बच्चन के छोटे भाई के भूमिका की हो,वो सब उसके पास होता है,जो वो चाहता है,,और इसी व्यक्ति का नाम है,ठाकुर अमर सिंह,और अब उस पार्टी की बात करें जिसके नाम की शुरुआत समाजवाद से होती है,,समाजवाद एक सामाजिक-आर्थिक दर्शन है,और पार्टी की हर एक कार्यकर्ता की कोशिश होती है,,कि उसके सिंद्वांत को अ&;रश पालन किया जाए,यानि कि धन-संपत्ति का वितरण और स्वामित्त्व समाज के नियंत्रण में रहे,ऐसी समाजवाद की परिभाषा है,यानि कि सपा की ऐसी सोच है,,लेकिन वाकई में ऐसा पार्टी के अंदर होता रहा ,,इस पर हमेशा सवाल उठते रहे,,सवाल मुलायम सिंह यादव पर भी उठे,,और पार्टी के सबसे बुजुर्ग नेता स्व.जनेश्वर मिश्र पर भी,,आखिर इस पार्टी का नाम सपा की क्यों रखा गया,,राजद की तरह रासपा,या फिर कुछ और क्यों नहीं,,आम जनता का हित पार्टी के हित से बिल्कुल अलग हो गया ,पार्टी पर व्यक्तिवाद हावी हो गया,,और हम उसी व्यक्ति की बात कर रहे हैं,,जिसने अपने आर्थिक तंत्र के जाल को पार्टी के ऊपर फैलाया,उसने गाहे-बगाहे पार्टी के अंदर वॉलीवुड की इंट्री करायी,संजय दत्त जिसे मुंबई बम विस्फोट का आरोपी माना गया,अमर के प्रताप से पार्टी के महासचिव बने,,इसी पार्टी के अंदर एक जनेश्वर मिश्र थे और एक ठाकुर अमर सिंह ,वैसे तो जनेश्वर मिश्र की तुलना किसी भी स्तर से अमर सिंह से नहीं की जा सकती है,लेकिन दोनों में कुछ समानताएं और असमानताएं भी थीं,,समानताएं केवल ये थे की दोनों एक ही पार्टी में थे,,और असमानताओं की बात करें तो ,जनेश्वर मिश्र आजीवन समाज के निचले तबके की ओर देखा करते थे,तो अमर सिंह की पहुंच समाज के उच्च तबके तक थी,,और हो भी क्यों नहीं वो खुद जो समाज के बड़े तबके में गिने जाते रहे ,,अमर ने इस पार्टी के अंदर समाजवाद का माखौल उड़ाया ,पैसे के बल पर पुरी राजनीति को चलाने की कोशिश की ,,और वर्षों तक इसमें वे सफल भी रहे,,पार्टी के अंदर कुछ लोग आए,,तो कुछ लोग चले गये,,वो सब कुछ हुआ उसके लिए दोष सिर्फ एक व्यक्ति पर गया ,,जो पार्टी के अंदर सबकुछ अपने अनुसार कर रहा था,समाजवाद का चेहरा धुंधला होता जा रहा था,,लेकिन आखिरकार ये सबकुछ कितने दिन तक होता,,इनकी ये करतूत ज्यादा दिन नहीं चलने वाली थी,,और एक दिन ऐसा हो ही गया जब पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया,,और अपने समाजवाद के रास्ते पर चलने की कोशिश करनी शुरु कर दी ,,लेकिन सवाल ये है कि क्या इतनी जल्दी सबकुछ सामान्य हो जाएगा,,अमर के तिलिस्म में आए लोग इतनी जल्दी पार्टी के नई डगर पर चलने को तैयार हो पाएंगें..

07 नवंबर 2009

६ सितंबर की बात है,जब रात के लगभग १ बजे रहे होंगे,,एकाएक खबर मिली कि हिंदी के प्रख्यात हस्ता&र नहीं रहे,,उसके बाद उन्हें याद करने के सिवा कोई चारा भी नहीं बचा था,,तो उन्की यादमें कुछ बातें जो काफी जरुरी हैं,,प्रभाष जोशी जी हमेशा लोगों के संदर्भ बिंदू के रुप में रहे,,उनके साथ जिन लोगों ने काम किया होगा ,मुझे ये आशा ही नहीं पुरा विश्वास है कि उनलोंगो पर गहरी झाप पड़ी होगी,प्रभाष जी की उपस्थिति इतनी हल्की नहीं है कि यूं ही किसी के जीवन से चली जाए,लेकिन ऐसा भी नहीं है कि उनके चाहने वाले ही केवल थे,और उनके केवल प्रशंसक ही केवल थे,उनके चाहने वालों की तादाद तो कम नहीं थी,लेकिन उन्हें न चाहने वालों की संख्या अच्छी-खासी थी,,हालांकि इस तरह की बातें भी प्रभाष जी को उनके एक अलग व्यक्तिव की ओर इशारा करती थी,एक बात जो कि हमेशा प्रभाष जी के बारे में कहा जाता जाता है कि,वे स्पष्ट पछ् लेते थे,जो कहीं-न-कहीं उनकी विशिष्टता को दिखाती थी,,क्या ये जरुरी नहीं है कि किसी भी विषय पर लिखने से पहले ,हमारा स्टैंड साफ होना चाहिेए,हमारी किसी भी विषय के प्रति सोच स्पष्ट होनी चाहिए,,तब उसके बारे में अपने विचार प्रकट करनी चाहिए,,और फिर इसे जितनी चाहें उतनी विस्तार दे सकें,,प्रभाष जी और खबरों की समझ,,तो इस पर तो उनकी समझ कमाल की थी,ये सारी बातें उनके व्यक्तिव में निखार लाती थी ,,इतना सब होने के बाद भी वे अपने-आप को कभी खुर्रम खां नहीं समझते थे,,खबरों की समझ की बात करें उसकी मिसाल तो जनसत्ता अखबार को देखने से मिल जाता था,,बात तो यहां कही जाती है कि जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता को एक नया आयाम दिया,जनसत्ता ने हिंदी पत्रकारिता के जितने ढांचे तोड़े हैं,उतने किसी अखबार,,न तो किसी पत्रिका ने तोड़े हैं,,कई नई प्रवृत्तियां आज के दिन में दिखने को मिल रही है,उनको शुरु करने में अहम भूमिका जनसत्ता की रही है,,जो कि जोशी जी नाम से जाना जाता था,,उनके भीतर जो एक चीज जो हमेशा जो कल्पनातीत रहती थी,,कि वे वे एक बहुआयामी पत्रकार की कल्पना करते थे,, लेकिन आज के पत्रकारिता के प्रभाव और उसमें आई गिरावट को वे साफ रुप से देख रहे थे,और इससे वे काफी दुखी भी थे,,जो इनके कलम से जाहिर हो जाता था,वे इन पर लिख भी रहे थे,,लेकिन एक स्तर तक इसकी गिरावट को आंकलन शायद वे कर लेभी गये थे,,वे आज के व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार मानते थे,,वे यह मानते थे कि चूंकि हाल के दिनों में पत्रकारिता में काफी पैसा आया है ,,इसी वजह से इसका माहौल खराब हुआ है,,जो कि तात्कालिक है,और बहुत जल्द वो दिन आएगा जब पत्रकारिता अपनी जगह पर होगी,,और अपने संस्कार,मर्यादएं वापस हो जाएगी,,और तब फिर से इनका समाज के प्रति जबावदेही फिर से स्थापित होगी।इसी यकीन के साथ वे इन दुष्प्रवृत्तियों से पुरे दमखम से लड़ रहे थे।हमे और उनके चाहने और न चाहने वालों को इस बात का इल्म होगा कि अंतिम सांस तक उनका उत्साह और यकीन नहीं टूटा होगा। में

26 अक्तूबर 2009

गरीबी का हाइजैक


गरीबी का हाइजैक

गरीबी का हाइजैक
गरीबी ऐसी चीज है जिसको छूकर एकाएक दौलतमंद बन जाता है,,लेकिन शर्त ये है कि वे हाथ छूने वाले होने चाहिए और छूने की कला भी आनी चाहिए।इस देश के हर आदमी गरीबी को हाइजैक करने में ही लगा है,,बाच चाहे मल्टीनेशनहमारे देश में गरीबी की बड़ी मांग है,अगर आपको बुरा या गलत लगा तो ध्यान से पढ़िए मैंने गरीब नहीं बल्कि गरीबी लिखा है,,विश्वास नहीं तो एकाध उदाहरण को छोड़ को कोई ऐसी वाक्या है जब किसी ने गरीबी को हटाने की बात की सोची होगी या फिर की होगी ,,ये अलग बात है बड़े-नारे ने न जाने कितने लोगों की गरीबी मिटा दी है,,हर बड़ी संस्था,हर बड़ा दल,हर संस्थान गरीबी को दूर करने की बात करता है,,हर बड़ा कलाकरा यह कहते सुनते मिल जाता है कि गरीबी देश की बड़ी समस्या है और वे इसे दूर करने की कोशिश कर रहाहै।वैसे तो एक हकीकत ये भी है इसे देश में जो भी गरीबी को हाथ लगाता है,,दिन-दूना रात चौगूना तरक्की करता दिखता है,,और रातों-रात अमीर बन जाता है,,इसे दूसरे शब्दों में कहिए तो गरीबी पारसमणि के समान है,,जो इसे जो इसे छूए वो मूल्यवान बन जाता है,,बात बहुराष्ट्रीय कंपनियों की या फिर साधू-महत्माओं की जो लोगो को हर तरकीब से बस गरीबी को बस भगवान का दिया वरदान बताते को बेताब रहते हैं,,हाइजैक तो हाइजैक जब मौका मिलता है तो इसे बाजार में अच्छे सौदे की तरह बेचने में भी कथित रुप से गरीबी हटाने वाले लोग पीछे नहीं रहते हैं,,गरीबी की कहानी अच्छे दाम दे जाती है,,देश की सत्ताइस करोड़ जनता गरीबी की शिकार हैं,लेकिन इसे दूर सरकार पीछे नहीं रहती है और न ही रहना चाहती है,,फायदा जो है,,राजनीतिकों पार्टियों के सागिर्द,,एनजीओ खोले बैंठे हैं,इनकी राशि को डकारने के लिए,,सरकार के करोड़ो का अनुदान आराम से डकार जाते हैं,,न तो इन्हे अपच होती है,,न ही इनकी सेहत को कोई नुकसान पहुंचता है ,आखिर माल बड़े नेताओं जो पहुंचता है।एक सवाल मेरे मन में है जो इतने बड़े धंधे को जो इतनी सफाई के साथ जो रहा है,इस पर किसी की नजर नहीं है,तो सवाल का उत्तर आता है नहीं ऐसी बात नहीं है न अपना मीडिया जो सारी चीजें की जांच पड़ताल तो करता है लेकिन इसमें एक स्वार्थ जुड़ा होता है ,साथ में अपने फायदे का ।वैसे भी मीडिया के आम जिंदगी में जरुरत से ज्यादा दखलदांजी की बात आम आदमी के पास अपनी इज्जतदार गरीबी को हाइजैक होते देखने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचता है।